हरीश थपलियाल।।। रिश्ते लिबास नहीं हो सकते, ये बसते हैं दिलों में। जो जिस्म पे सजते हैं, वो रिश्ते नहीं होते। आज हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां रिश्ते केवल लिबास हो गये हैं। उनकी कोई अहमियत नहीं रही। इंसानी रिश्तों का मनोविज्ञान बिल्कुल बदल चुका है। आज हर रिश्ता असंवेदनशील हो चुका है। रिश्ते की ओर से कब कौन सा रिश्ता नापाक हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। व्यक्ति, समाज और देश सभी एक-दूसरे से अंतर संबंधित हैं। अगर समाज ऐसा बन चुका है जहां हम भरोसा करना छोड़ चुके हैं तो दोषी कौन है? कोई खास समाज या सरकार या समूह दोषी नहीं है बल्कि समस्त मानवता जिम्मेदार है। महत्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हैं कि लोग रिश्तों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर ऊपर चढ़ जाना चाहते हैं और जब कहीं पहुंच जाये तो फिर उन्हीं रिश्तों का कत्ल कर दे। रिश्तों को ताक पर रखकर हत्यायें हो रही हैं, कुकर्म हो रहे हैं। किसी पर कोई यकीन करे तो कैसे। एक तरफ तो शिक्षा, विकास और प्रगति के लिए वैश्वीकरण की बात की जाती है तो वहीं दूसरी तरफ हम अपने आप में सिमटते जा रहे हैं।।।
आज सामाजिक सम्बन्धों के साथ-साथ परिवार के आत्मीय रिश्तों से जुड़े सरोकार बहुत कमजोर हो चुके हैं। सही बात तो यह है कि इस वैश्विक दौर में आत्मीय सम्बन्ध पर चोट करने वाली तमाम घटनायें हो गई हैं।
कई बार संपत्ति से बेदखली से भी रिश्तों की जमीन दरक जाती है। रिश्तों की सहजता ही भावी पीढ़ियों को तैयार करनी है। पारिवारिक मूल्यों के खत्म होने का रोना हर तरफ से सुनाई देता है। बस हो, ट्रेन हो, मुहल्ला हो या चौराहा हर कोई चर्चा करता नजर आता है कि समाज कितना विदूप हो चुका है लेकिन कोई इस तह में जाने की जरूरत नहीं समझता कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। पति-पत्नी, बच्चे और अभिभावक या परिवार के आत्मीय सम्बन्धों से जुड़ी आपराधिक घटनायें सीधे सामाजिक ढांचे की दीवारों के दरकने के ही संकेत दे रहे हैं। वर्तमान में भागती और हांफती जिंदगी के बीच उठ रहे सवाल काफी तीखे हैं।।।
क्या सामाजिक रिश्तों में कड़वाहट और बढ़ेगी? क्या भविष्य में विवाह और सामाजिक ढांचा बचा रहेगा? क्या बच्चों को परिवार का स्नेह, संवेदनाओं का अहसास, मूल्यों और संस्कारों की सीख मिल पाएगी? इन प्रश्नों का जवाब हमें समाज के भीतर ही खोजना होगा। समाज में आपसी संवाद खत्म हो रहा है। तानाबाना इतना कमजोर हो चुका है कि रिश्ते खून की होली खेल रहे हैं। आज हमारी संस्कृति का वैश्विक सम्पर्क काफी बढ़ चुका है। रिश्तों का स्वरूप बदलना स्वाभाविक है लेकिन रिश्ते ही खून बहाने लगे तो होगा क्या?
आज सामाजिक सम्बन्धों के साथ-साथ परिवार के आत्मीय रिश्तों से जुड़े सरोकार बहुत कमजोर हो चुके हैं। सही बात तो यह है कि इस वैश्विक दौर में आत्मीय सम्बन्ध पर चोट करने वाली तमाम घटनायें हो गई हैं।
कई बार संपत्ति से बेदखली से भी रिश्तों की जमीन दरक जाती है। रिश्तों की सहजता ही भावी पीढ़ियों को तैयार करनी है। पारिवारिक मूल्यों के खत्म होने का रोना हर तरफ से सुनाई देता है। बस हो, ट्रेन हो, मुहल्ला हो या चौराहा हर कोई चर्चा करता नजर आता है कि समाज कितना विदूप हो चुका है लेकिन कोई इस तह में जाने की जरूरत नहीं समझता कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। पति-पत्नी, बच्चे और अभिभावक या परिवार के आत्मीय सम्बन्धों से जुड़ी आपराधिक घटनायें सीधे सामाजिक ढांचे की दीवारों के दरकने के ही संकेत दे रहे हैं। वर्तमान में भागती और हांफती जिंदगी के बीच उठ रहे सवाल काफी तीखे हैं।।।
क्या सामाजिक रिश्तों में कड़वाहट और बढ़ेगी? क्या भविष्य में विवाह और सामाजिक ढांचा बचा रहेगा? क्या बच्चों को परिवार का स्नेह, संवेदनाओं का अहसास, मूल्यों और संस्कारों की सीख मिल पाएगी? इन प्रश्नों का जवाब हमें समाज के भीतर ही खोजना होगा। समाज में आपसी संवाद खत्म हो रहा है। तानाबाना इतना कमजोर हो चुका है कि रिश्ते खून की होली खेल रहे हैं। आज हमारी संस्कृति का वैश्विक सम्पर्क काफी बढ़ चुका है। रिश्तों का स्वरूप बदलना स्वाभाविक है लेकिन रिश्ते ही खून बहाने लगे तो होगा क्या?