इंसान इंसान को डस रहा और साँप बैठकर रो रहा है।।।

इंसानियत यानी मानवता, फिर चाहे वो किसी भी देश का हो, किसी भी जाति का हो या फिर किसी भी शहर का हो सबका एकमात्र प्रथम उद्देश्य एक अच्छा इंसान बनने का होना चाहिए। हर किसी इंसान के रंग रूप, सूरत, शारीरिक बनावट, रहन-सहन, सोच-विचार और भाषा आदि में समानतायें भी होती हैं और असमानताएं भी होती हैं, लेकिन ईश्वर ने हम सभी को पाँच तत्वों से बनाया है। हम सभी में इस परमात्मा का अंश है। आज के इस दौर में इंसान मानवता को छोड़कर, इंसान के द्वारा बनाये गए धर्मों के भेद-भाव के रास्ते पर निकल पड़ा है। इसमें कुछ तो हम लोगों की अपनी सोच है और कुछ राजनेताओं द्वारा रचे प्रपंच है, जोकि राजनीतिक लाभ में भेद-भाव को बढ़ावा देता है। जिसके चलते एक इंसान किसी दूसरे इंसान की ना तो मज़बूरी समझता है और ना ही उसकी मदद ही करता है। यहाँ पर इंसानियत पर धर्म की चोट पड़ती है। लोग इंसानियत को छोड़कर अपने ही द्वारा रची गई धर्मों की बेड़ियों में जकड़े जा रहे हैं। इंसान धर्म की आड़ में अपने अंदर पल रहे वैर, निंदा, नफरत, अविश्वास, उन्माद और जातिवादी भेदभाव के कारण अभिमान को प्राथमिकता दे रहा है। जिससे उसके भीतर की मानवता शनै: शनै: दम तोड़ रही है। इंसान प्यार करना भूलता जा रहा है, अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है, इन सबके चलते मानव के मन में दानवता का वास होता जा रहा है।

आज धर्म के नाम पर लोग लहू-लुहान करने से पीछे नहीं हटते जिससे संप्रदायों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। हाल ही मैं  नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि कश्मीर के पुलवामा में हुए आरडीएक्स धमाकों में मानव के भीतर की दानवता का उदहारण दिखा जहाँ 44 सीआरपीएफ के जवानों की जान और माल का नुकसान हुआ और परिवार के परिवार उजड़ गए। आज इंसान- इंसान का  दुश्मन बनता जा रहा है क्योंकि वो पराये धर्म से है। लोगों का मूल उद्देश्य अपना स्वार्थ सिद्ध करना हो गया है किसी को पैसे का स्वार्थ है तो कोई ओहदे को लेकर और तो कोई एक तरफ़ा प्यार के स्वार्थ में अँधा है। इसी के चलते मानव इंसानियत को अपने जीवन से चलता कर देते हैं। मैने कहीं पड़ा था ''इंसान इंसान को डस रहा है और साँप बैठकर रो रहा है"

अब इंसान में हैवानियत-सी आ गई है, उसे अपने अलावा किसी की भी कोई अहमियत नजर नहीं आ रही है। यह इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि जो इंसान जानवरों और पेड़ पौधों पर भी दया नहीं दिखा सकता वह इंसान पर कैसे कर सकता है ? यही वो इंसान है जो अब सिर्फ 'मैं' शब्द में ही उलझकर रह गया है और इसी में जीना चाहता है। हाल के दिनों में ऐसी कुछ घटनाएं सामने आई हैं, जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि 'मरते हैं इंसान भी और अब मर रही है, इंसानियत'। कुछ घटनाओं को देखें तो लगेगा कि इंसानियत तार तार हो रही है। उत्तर प्रदेश के शहर ग़ाज़ियाबाद कि एक घटना जिसमें एक पति तेज गति से गाड़ी चलाते हुए अपनी पत्नी को प्रसव पीड़ा के लिए अस्पताल लेकर जा रहा था, उसकी रास्ते में टक्कर एक ऑडी कार से होती है जो कि एक महिला चला रही थी। उस टक्कर में उसकी उस कीमती कार पर एक हल्की सी खरोंच आ जाने से वह महिला गुस्से से तमतमा गई और उस दंपत्ति की गाड़ी की चाबी निकाल ली। उस दौरान मानो जैसे उसने अपनी सारी इंसानियत को ताक पर रख दिया हो और उसने यह भी नहीं देखा कि एक महिला प्रसव पीड़ा से तड़प रही है और उसका पति उसे तुरंत अस्पताल ले जाने के लिए मिन्नते कर रहा है। यही नहीं ये सब वाकया देख रहे अन्य लोग भी उन लोगों को जाने के लिए बोलते रहे पर उसने किसी की नहीं सुनी। क्या इंसानियत का स्तर इतना गिर गया की एक महिला होकर भी महिला का दुःख नहीं समझ पाई। दया, क्षमा तो महिलाओं के गुण माने जाते हैं।

बात यहीं खत्म नहीं होती इसके अलावा मौत से जूझते हुए एक इन्सान को भी लोगों ने यूँ ही सड़क पर छोड़ दिया मरने के लिए। किसी ने उसकी मदद करनी नहीं चाही। यह जरूर किया कि उस इंसान के दर्द से तड़पने की वीडियो बनाई और उसको सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया ताकि उस मरते हुए इंसान के साथ साथ मर रही इंसानियत का चेहरा भी देखा जा सके। लोग आज भी यही सोचते हैं कि अगर ऐसी घायल अवस्था में वो किसी को अस्पताल ले जाते हैं तो उनको कानूनी कार्यवाही के झंझट में पड़ना होगा। मैं समझता हूँ कि यहाँ लोगों में जानकारी का आभाव है, उनको यह नहीं पता कि ऐसे किसी भी घायल इंसान को अस्पताल पहुँचाने वाले को अपना नाम नहीं बताने की छूट है। यहाँ तक कि सरकार ने आपातकालीन सुविधा भी उपलब्ध कराई है ताकि किसी को भी घायल व्यक्ति के इलाज़ का भार ना उठाना पड़े। एक ये भी वजह है जो लोग किसी दूसरी की मदद करने से पहले कई बार सोचते हैं कि कहीं इन सब का असर उनकी जेब और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर ना पड़े।

निष्कर्ष में मैंने यही पाया है कि चाहे बात किसी जाति के विवाद की हो या बात किसी इंसान की मदद न करने की हो या फिर धर्म के नाम पर इंसान को इंसान के खिलाफ करने की हो, इन सभी में शिक्षा का अभाव है, समझ की कमी है और अपना खुद का स्वार्थ है क्योंकि अब इंसानों में "मै" शब्द का अभिमान बढ़ता जा रहा है। यह अभिमान जब तक हममें रहेगा तब तक उपरोक्त घटनाओं का जो विवरण दिया गया है वैसे किस्से सुनने को मिलते रहेंगे। इंसानियत कुछ रुपयों को लेकर, अपने लालच और अपने लोभ व लालसा को लेकर ऐसे हर बार शर्मसार होती रहेगी। हम लोगों को अपने संस्कारों को अपनी शिक्षा पर अमल करने की जरूरत है। मैं यह नहीं मानता की कोई भी धर्म या मज़हब इंसानियत को मारने के लिए कहता होगा तो क्यों ना हम यह शुरुआत अपने परिवार से करें अपने परिवार को समय देकर उनका हमारे जीवन में महत्त्व को समझें। अगर शुरुआत अपने घर से होगी तभी तो सामाजिक तौर पर इंसानियत को ला पाएंगे।

मरते थे इंसान कभी पर, अब मर रही है इंसानियत,
पैसे सत्ता और ताकत के लालच में आ गई है, हैवानियत
धर्म और मज़हब का ढोल बजा के लहू लुहान किया इंसानों को,
जाति, धर्म का लालच देके झोंक दिया इंसानियत को,
मार दिया उस प्यार को और उसके प्यारे एहसास को,
जप रहा है जाप बस "मैं" शब्द के नाम को,
दया की भावना तो चली गई, ना ही अपनों का अब दर्द रहा,
देख ख़ुशी दूसरों की आज का इंसान क्यों जल रहा,
कैसा युग है, और क्या समय की मार है, प्यारे

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