आखिर कहां जा रही है हमारी संस्कृति- रजनी।

रजनी रावत/रुद्रप्रयाग।
हमारी संस्कृति एवं संस्कार  निरंतर बदलते जा रहे हैं।यह एक सोचनीय विषय है, क्यूँ हम पश्चिमी सभ्यता की ओर अग्रसर हो रहे हैं!पश्चिमी संस्कृति का बोलबाला दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।अजीब विडंबना है, लोग अपने माँ -बाप को सिर्फ फादर्स डे या ' मदर्स डे'पर याद करते हैं।एक आदर्श भारतीय माँ अपने बच्चों को हर पल प्यार करती है।
हमारे समाज में माँ का गौरवशाली इतिहास रहा है।जिनसे समाज में नारियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।आज हम अपनी संस्कृति एवं संस्कारों का हनन करके पश्चिमी सभ्यता को अपना रहे हैं।आज की माडर्न माँ अपने बच्चों को सिर्फ पब्लिक या कान्वेंट स्कूल में पढ़ाना चाहती है।जिससे बच्चे को अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं हो पाता है।खासकर जो हमारी गढ़वाली बोली है वो पिछड़ती जा रही है।एक दिन का मदर्स डे मनाने का प्रचलन है।यह सब अंग्रेजी के बोलबाले से हुआ है। क्या माँ एक ही दिन बच्चों के लिए संघर्ष करती है?जो हम एक दिन याद करके फिर भूल जाते हैं।माँ आदिकाल से पूजनीय रही है और अनंतकाल तक पूजनीय रहेगी।मदर्स डे की तरह जक दिन फिर फादर्स डे भी आता है।बच्चों के पालन-पोषण में जितना योगदान माँ का होता है उतना ही योगदान पिता का भी होता है ।एक पिता भी वटवृक्ष की तरह अटल होकर अपने बच्चों को सारी खुशियाँ सारे सुख प्रदान करता है।अतः एक दिन का फादर्स डे या मदर्स डे मनाना काफी नहीं है।अपने माता-पिता को प्रसन्न रखिए, उनका सम्मान कीजिए ,उन्हें अनाथाश्रम में न भेजें।
शिक्षा-अपने बच्चों क़ो अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ अपनी मातृभाषा का भी ज्ञान कराएं।

कुछ कविताएं आपके लिए ---


आखिर कहां जा रही है हमारी संकृति।
जब कोई बेगाना आना होता है।
जीवन का हर रंग सुहाना होता है।

लाख कोशिशें कर लो चाहे अपने से,
सुख दुख को जीवन में आना होता है।

पतझड़ हो,सावन हो, चाहे हो सर्दी,
हर मौसम का लुफ्त उठाना होता है।

अपनी सत्ता हथियाने के खातिर भी,
नेताओं को घर घर जाना होता है।

पल पल दुख जो झेल रहे हैं जीवन में,
दरिया बनकर नीर बहाना होता है।

दिखे झोपड़ी निर्धन की जो रस्ते पे,
दीप खुशी का वहीं जलाना होता है।
रजनी रावत रूद्रप्रयाग

हम दिए जलाने निकले,
और वो हमें रूलाने निकले।

माँगी जिनके लिए दुआएं,
हमको वही रूलाने निकले।

महफिल जिनके लिए सजायी,
वो सब दोस्त पुराने निकले।

हमें आरजू थी महफिल की,
मगर वहाँ भी ताने निकले।

हमने जिनसे आस लगाई,
वे सारे बेगाने निकले।

हमने उनको बहुत मनाया,
पर वो तो अफसाने निकले।

हम तो यूंही टहल रहे थे,
वो क्यूँ हमें मनाने निकले।

कोरे कागज के पन्नों पर,
उनके कई बहाने निकले।
रजनी

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