SPECIAL: काशः बचपन में स्कूल के वो दिन लौट आते! आस्ट्रलिया में रहने वाले एक भारतीय गढ़वाली की कलम से..

सुदर्शन सिंह पंवार,  आस्ट्रलिया
सुदर्शन सिंह पंवार,
आस्ट्रलिया
हम पहाड़ में पले बढ़े बच्चे है मेरे गुरूजी मेरे चाचा चमन सिंह है और पांचवी तक घर से पाटी लेकर स्कूल जाते थे पाटी को हम गढ़वाली में धूलेंटा भी कहते है, कांच की दवात से पाटी घिसकर चमकाई जाती थी। सुबह स्कूल जाते सूर्य की किरणों में पाटी को हम दगड़्यों के मुंह पर चमकाते थे, पाटी को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी। पहाड़े याद नहीं होने के तनाव में रिंगाल की कलम चबाकर तनाव मिटाया था। स्कूल में चटाई न होने पर घर से बोरी बैठने के लिए बगल में दबा कर भी ले जातें थे। छठी कक्षा में पहली दफा हमने अंग्रेजी के अक्षर देखे, लेकिन बढ़िया अंग्रेजी हमें बारहवीं तक भी नहीं आयी थी। और आज भी कहाॅ आती है हम पहाड़ के बच्चों की अपनी एक अलग दुनिया थी। कपड़े के बस्ते में किताब और कापियां ढंग से लगाने की हममें एक कौशलता थी। पाटी घोटने की मान्यता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा की कापी किताबें मिलतीं तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का एक उत्सव जैंसे होता था।
कभी सूखी रोटी, कभी दाल गाथ की भरी रोटी पन्नी में लपेटकर हमारा लंच बाक्स होता था, तो कभी सेब, आड़ू, नासपाती, संतरे, माल्टा, मुंगरी कखड़ी ही पन्नी भरकर लंच बाक्स होता था, नीली कमीज और खाकी पैंट पहनकर जब हम पहली बार इंटरमीडिएट कालेज पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास हुआ, शुभा धै लगा लगाकर दगड़्यों को स्कूल के लिए बुलाते, टोली बनाकर 5-7 किलोमीटर की उकाल उंदार सरपट चलकर स्कूल जाना बांयें हाथ का खेल होता था। कभी मन न किया, तो जंगल में छुपकर कंच्चे खेलकर स्कूल से कट मारा था। गुरूजी से स्कूल में पिटते, मुर्गा बनते, मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता, हम पहाड़ के बच्चे तब तक जानते नहीं थे कि ईगो होता क्या है। 
गुरू जी की पिटाई व सजा का रंज कुछ देर में भूलकर, फिर दगड़्यों के संग पूरी तनमन से खेलते व खुचरिंडी करते। सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ का फासला लेना,  फिर भी जानबूझ कर धक्का मुक्की में अड़ना भिड़ना, सावधान विश्राम होना, हमारी आदत थी।हम पहाड़ के निकले बच्चे सपने देखने का सलीका नही सीख पाते, अपने माँ बाप को ये कभी नही बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं।हम पहाड़ से निकले बच्चे गिरते सम्भलते लड़ते भिड़ते दुनिया का हिस्सा बनते हैं। कुछ मंजिल पा जाते हैं, कुछ यूं ही खो जाते हैं। एकल्यब्या होना हमारी नियति है शायद।

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